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Tuesday, March 15, 2011

Guzare jab Hum Teri Galiyon se : Online Poetry 4 U

गुजरे जव तेरी गलियों से 
हम अपना ठिकाना भूल गए
जिस पल ये नज़रें तुम से मिलीं 
हम पलकें गिरना भूल गए 
साँसों का सिलसिला रुक रुक कर 
कदामों को यूँ बहकाने लगा 
जाना था जो किसी और नगर
ये तेरी डगर से मिला गए  
देख के तेरी सूरत को 
एक आह! सी जो भर दी हमने 
नाजो अदा दिखलाते हुए 
दामन को छुड़ाकर चले गये 
ये, ठीक है तुम हो हंसी कमल 
इतराना फिदरत में वसाए हो
एक बात बता दो मेरे चमन 
क्या बिन मेरे खिल पाए हो?
                                       
                                           * उमाकांत शर्मा (उमेश)

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